Monday 17 February 2014

बस्तर : इतिहास के कालक्रम में संज्ञा और सत्ता वर्चस्व

बस्तर : इतिहास के कालक्रम में संज्ञा और सत्ता वर्चस्व

आज का बस्तर संभाग, स्वतंत्रता के पुर्व इतिहास के संदर्भो में ‘विस्तृत बस्तर’ जो भौगोलिक, भाषाई विस्तार, राजनीतिक नियंत्रण तथा जनजातियों के आपसी संतुलन आग्रह के कारण पश्चिम में चाँदा, पूर्व में कोरापुट, उत्तर में रायपुर तक, दक्षिण में भद्राचलम तक व्यवस्थित था | स्वतंत्रता पश्चात राज्यों के गठन की प्रक्रिया ने विस्तृत बस्तर की सीमाओं को समेट कर रख दिया | छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद देश के एकमात्र ३२ विकास खंडों का विशाल जिला बस्तर का राजनीतिक एवं विकास की जरूरतों के आधार पर लगातार विभाजित किया जाता रहा है आज इसका ७ जिलों में विभाजन हो चुका है |
‘विस्तृत बस्तर’ आटविक क्षेत्र, गहन वन प्रान्तर से घिरा तथा श्रुति कथाओ पर लिखे इतिहास जैसी अवस्था तथा प्रमाण सामाग्री पर अध्ययन के अभाव के कारण बस्तर क्षेत्र का इतिहास व्यवस्थित प्रस्तुतिकरण के अभाव से ग्रसित रहा है |
कालानुक्रम के अनुसार ऐतिहासिक साक्षयों में, अभिलेख स्तंभों में भिन्न-भिन्न काल क्रमों में दण्डकारण्य को भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता रहा है | दण्डकारण्य के इतिहास के संतुलित अध्ययन या काल क्रमबद्धता में स्पष्टता के लिए दण्डकारण्य की विभिन्न कालों में इस क्षेत्र के नाम का ज्ञान होना आवश्यक है | दण्डकारण्य के अपने विशिष्ट भौगोलिकता, विरल बसाहट तथा संघर्षशील आटविक जनजातियों के कारण अशोक महान जैसे रणबांकुर सम्राट को दण्डकारण्य को “अनंत अविजितां ” कहने मजबूर होना पड़ा था | 
भारतीय इतिहासकारों की कुछ पूर्वाग्रह से भरी मिथ्या धारणा थी की दण्डकारण्य अनादी काल से अंसस्कृत और अबूझ क्षेत्र रहा है | इतिहासकारो की इस उपेक्षा को पं. केदार नाथ ठाकुर, व्ही.आर.रसेल, राय बहादुर, डॉ. हीरालाल, महाराज प्रवीण चन्द्र भंजदेव, पं. सुंदर लाल त्रिपाठी, लाला जगदलपुरी, गंगाधर सामंत, ग्रिगसन, एल्विन, डा. राम कुमार बेहार, कृष्ण कुमार झा जैसे मनीषियों ने अपने तथ्यों से रौंद कर बस्तर अंचल की इतिहास एवं पूरा को सत्य से गौरवान्ति किया |

इतिहास के अलग अलग काल खण्डो में साहित्य एवं अभिलेखीय संदर्भो में एक क्षेत्र को अलग अलग संज्ञा प्रदान करना अपने आप में उल्लेख का विषय होने के कारण उपनिबध करने की आवश्यकता रही है | मै यहाँ अल्प प्रयास कर रहा हूँ पर मनीषियों से  तथ्यों, बिंदुओं का जोड़ने और सुधार का आग्रह बना रहेगा |

रामायण काल में उल्लेख अनुसार आरण्य काण्ड 3.12.14 में ‘विन्ध्याशैव्ल्ये दण्डकारण्य’ की स्थिति बतायी गयी है |
उत्तर वैदिक काल के पश्चात रामायण युग में सूर्यवंशी इक्षवाकू के तृतीय पुत्र दण्डक को इक्षवाकू ने विध्य एवं शैवल  के मध्य क्षेत्र का स्वामी बनाया | यह मध्य क्षेत्र दण्डक जनपद के नाम पर प्रसिद्ध हुआ | वामन पुराण एवं उत्तर रामायण के अनुसार दण्डक की उदण्डता से उसके गुरु शुक्र ने दण्डक जनपद के नष्ट होकर अरण्य बन जाने का श्राप दिया था |

तस्मात सराष्ट्र: सबल: सभृत्यो वाहनै: सह |
Imperial Gazetteer of India - Author-Government of British India

स्प्तरान्त्रान्तराद भस्म ग्राववृष्टया भविष्यति ||

इस श्राप के कारण दण्डक जनपद आरण्य में बदलने लगा आरण्यों की गहनता व्याप्त हो जाने के कारण कालान्तर दण्डक जनपद दण्डकारण्य बन गया | नीतिकार कोटिल्य के अर्थशास्त्र (१.६) में इस घटना का वर्णन मिलता है |

दण्डकयों नाम भोज: कामाद् ब्राम्हण कन्या भभिमन्यमान्य: सुबन्धु राष्ट्रों विननाश

आदि कवी वाल्मिकी के रामायण में विन्ध के दक्षिण में व गोदावरी के उत्तर पूर्व के वन भाग को दण्डकारण्य बताया गया है | राजा दिक्पाल देव का प्राप्त अभिलेख (ई.एल.१२.२४६) में उल्लेखित है -

दंडकारण्य निकट बस्तर देशे राज्यं चकार

दण्डकारण्य के होने के कारण कालान्तर इस क्षेत्र के निवासी माडिया जनजाती के लोग दण्डमी माडिया कहलाते है | वही वामन पुराण (५७.५५) में उल्लेखित है 

रुद्रान्ख्यां च हिरण्यावत्यां वीरभद्र त्रिविष्ट्पे |

शंकुकर्ण भिमायाम भीमं शालवाने विंदु : ||



अर्थात भीमादेव अधिष्टित बस्तर, शाल वनों का दण्डकारण्य है आज भी प्राचीन मंदिरों में आराध्य भीमादेव को शिव के रूप में पूजे जाते है | प्राचीन बस्तर के संदर्भो मे वाल्मिकी रामायण |

पुराणों के काल खण्ड में दण्डकारण्य को दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था | इसका उल्लेख वायु पुराण में मिलाता है कि भारत खण्ड के मध्य प्रांत के कोसल को सात खण्डो में बंटा गया है - मेकल कोसल , क्रांतिकोसल , चेदिकोसल , दक्षिणकोसल, पुर्वकोसल, कलिंग कोसल | वायु पुराण के इन सात खण्डो में यह ‘दक्षिण कोसल’ ही भोगोलिक स्थिति के कारण दण्डकारण्य का बोधक रहा है |

ईसा पूर्व 600 से 321 ईसा पूर्व तक जनपद काल में दण्डकारण्य क्षेत्र को अश्मक जनपद के नाम से जाना जाता था | अश्मक जनपद क्षत्रियो का जनपद रहा है | इसे महापद्मनन्द (363 से 324 ई.पूर्व.) ने नष्ट कर मगघ साम्राज्य में शामिल किया था महापदमनन्द ने अश्मक ही नही हैहय, कोसलकलिंग, जैसे समस्त जनपदों का विनाश कर दिया था | 

महापदमनन्द के वंश के अंतिम शासक का अन्त कर चंद्र गुप्त मौर्य एवं चाणक्य ने मौर्य वंश स्थापित किया | इस मौर्य वंश का अप्रतिबद्द चक्र चलने वाले चंद्रगुप्त ने पुरे हिन्द कुश पर्वत से लेकर मैसूर तक राज्य स्थापित किया, लेकिन कलिंग तथा आटविक जनपद के नाम से ज्ञात दण्डकारण्य को वह भी विजित करने में वह भी असमर्थ रहा | 
मौर्य वंश का प्रतापी सम्राट अशोक में चंद्र गुप्त के अधूरे कार्य को पूर्ण करने के प्रयास में कलिंग को तो विजित कर लिया लेकिन वह आटविक जनपद (विस्तृत बस्तर) को विजित करने में असमर्थ रहा | उसने अपने प्रशास्तर अभिलेख में आटविक जनपद को “अन्तान अविजितांन” कहा | अत: अंत में अशोक ने स्वतंत्रता प्रेमी एवं स्वाभिमानी आटविक जनों को वशीभूत करने के लिए धर्म का मार्ग अपनाने का प्रयास किया |

एतका: वा में इच्छा अंतेषु पापुनेयु |

लाजा हर्ब अच्छति अनिविगिन हेयू ||
ममियाये अखसेयू च में सुखमेव |
च हेयू ममते ना दुख : ||

मौर्य काल में कलिंग प्रदेश के पश्चिम  स्थित आटविक प्रदेश दण्डकारण्य का ही नाम था | देवनामप्रिय अशोक पश्चात शिथिल होते मौर्य साम्राज्य के अधिपत्य से निकल कर कलिंग ने स्वतंत्रता की घोषणा की जिसकी वहा महामेघकालवंश का उदय हुआ | इस वंश के तृतीय राजा जैन धर्मावलम्बी खारवेल ने अपनी क्षमता से अल्प अवधि में ही विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी | ‍‌खारवेल ने अपनी उदय गिरी स्थित हाथी गुफा प्रशस्ति में दण्डकारण्य को ‘विद्याधरधिवांस अह्त्पुर्व ’ अर्थात अपराजय विद्याधरधिवांस कहा | इसमें कलिंग से भोजक (विदर्भ) तथा राठीक (महाराष्ट्र) को पराभाव करने को यात्रा की इस पथ पर प्रथम ही अवस्थिति आटविक जनपद को खारवेल ने विजित किया | जैन धर्मावलम्बी खारवेल के विजय प्रभाव के कई प्रमाण आज भी बस्तर के ग्रामो में जैन मूर्तियों के रूप में बिखरे दिखते है |

बाटर्स ने ‘व्हेन सांग अवल्स इन इंडिया’ में लिखा कि गौतम पुत्र सातकर्णी  ने दण्डकारण्य के महामेघवंशीय चेदी को परास्त कर अपना राज्य स्थापित किया | सात वाहनों ने ईसा पूर्व 72 से 200 ईसा तक शासन किया | विशिष्ठी पुत्र पुलूमोवि के नासिक गुहा अभिलेख में गौतम पुत्र सात कणी को विन्ध्य क्षवत, पारियात्र, साक्ष्द्य, कृष्णगिरी, श्वेतगिरी, मलय, महेंद्र तथा चकोरपर्वत का स्वामी कहा गया है इसमें से संभवतः मलय, महेंद्र तथा चकोर पर्वत च्क्रकोट या चित्रकोट दण्डक क्षेत्र के परिचायक थे |
कौसल कलिंग दण्डकारण्य के अधिपति सातवाहनों के पतन के साथ दण्डकारण्य के उत्तर भाग महाकौसल में वाकाटको ने तथा पूर्व में ईक्षवाकु ने अपना साम्राज्य स्थापित किया | इस काल में भी ईक्षवाकु से दण्डकारण्य अविजित रहा | वाकाटको और ईक्षवाकु दोनों ही वंश अपने अथक प्रयास के बावजूद यहाँ पर अपना साम्राजय स्थापित नहीं कर सके |



200 ईसा से 350 ईसा तक के इस काल में यह क्षेत्र स्थानीय राज्य वंश क्षत्रपो सम्भवत: नागवंश के राजाओं के अधीन रहा | इस काल के प्राप्त नागार्जुन कोण्ड अभिलेख में दण्डकारण्य क्षेत्र को इस काल में महावन कहा गया है | अमरावती से दो अभिलेखों 
(ल्यूडर्स सूची 1230, जे.ए.एच.आर.एस.आई. 231) में भी दण्डकारण्य को महावन कहा गया है |
प्रयाग राज प्रशस्ति (सी II,III 8) में कौसल राज्य के दक्षिण में महाकान्तर प्रदेश का वर्णन मिलता है; कौसल अर्थात छत्तीसगढ़ चौथी शताब्दी के मध्य काल में ३३५ ईसा से ३७५ तक दक्षिण कोसल को विभागों में विभाजित किया गया था  पहला उपरी या उत्तरी कोसल दूसरा दक्षिणी भाग जिससे बस्तर एवं वर्तमान सिहावा के क्षेत्र शामिल थे इसे ‘महाकांतर’ के नाम से जाना जाता था |‘उत्तरकोसल’ पर वाकाटको के सामंत राजा महेन्द्र का शासन था तथा ‘दक्षिणी महाकान्तर’ व्याघ्रराज द्वारा शासित था |

इलाहाबाद के प्रस्तार अभिलेख में ‘महाकांतरस्यव्या व्याघ्रराज’ का उल्लेख है| राय बहादुर डॉ हीरालाल ने ‘मध्य प्रदेश का इतिहास’ के पृष्ठ १९ में  उल्लेखित किया है की समुद्रगुप्त ने महाकोसल एवं महाकान्तर को विजित किया|    

प्रोफेसर जी.जे.दुब्रियाल ने ‘एनसिएन्ट हिस्ट्री आफ दि दक्कम’ (१९१८) स्पष्ट किया है कि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त  ने कोसल के राजा महेन्द्र तथा महाकान्तार राज व्याघ्र्राज को हरा कर पूर्वी तट तक विजय यात्रा पूर्ण की|
महाभारत के सभा पूर्व अध्याय के ३१ के श्लोक में –

कान्ताराध्य समरे तथा प्राक कौशलान्नृपान |

नाटके यांश्चं समरे यथा हहेम्बकान यूधि ||

यहाँ पर कांतर प्रदेश पश्चिम में चाँदा पूर्व में कोरापुट उत्तर में रायपुर दक्षिण में भद्राचलम तक व्यवस्थित था | समुद्र गुप्त ने आर्यावत से दक्षिण पथ तक कि विजय यात्रा में समस्त प्रदेशो को विजित किया लेकिन इन्हें अपना करद राज्य नहीं बनाया | (शुक्ल अभिनंदन ग्रन्थ पृ . 1666 मिराशी ) 

दण्डकारण्य में नलवंश का इतिहास उल्लेखनीय रहा है | सातवी शताब्दी के पूर्वी चालुक्य नृपति विक्रमादित्य प्रथम के कर्नलू दान पत्र में उल्लेखित नलवडी विषय (जनरल आफ दी बाम्बे ब्रांच आफ एशिएटिक सोसायटी १६) महाकान्तर में नलवंश अधिपत्य को सिद्ध करता है | नलयुगीन महाकांतर अनेक अर्ध स्वतंत्र राज्यों से बना हुआ था, जिन्हें ‘मंडल, के नाम से जाना जाता है | जिनमे से मध्य बस्तर को चक्रकूट, चक्रकोट्य, चक्रकोठ्ठ जैसे विभिन्न नामो से जाना जाता है |


भ्रमर कोट्य मण्डल को इतिहासकार कहीं-कहीं आधुनिक बस्तर स्थित था ऐसा मानते है लेकिन मधुरंत्क देव के राजपुर ताम्र पत्र में दोनों मण्डलों के नाम एक साथ उल्लेखित होने के कारण इतिहासकारों के मतों का खण्डन हो जाता है | यह अभिलेख यह भी संकेत करता है कि भ्रमरकोटय मंडल चक्रकोट के अधीन था | नागयुगीन दण्डकारण्य में भ्रमरकोट्य आज उमरकोट (उड़ीसा) के नाम से जाना जता है | भ्रमरकोट्य नलयुग में महाराज तुष्टिकर के शासन के आधीन था | 

इस महाकान्तर से प्राप्त सिक्को एवं अभिलेखों के आधार पर बी.व्ही.कृष्णराव ( इ.डी.ए २०० – ६२४ ईसा मद्रास १०२४ पृ. ६५८ ) ने नलों की राज्य सीमा पश्चिम में वैन गंगा से लेकर दक्षिण में इन्द्रावती पूर्व में पूर्वी घाट से लेकर उत्तर मेकल क्षेत्र तक मानी गयी है | (इंडियन एपिग्रफिक खण्ड १९ पृ. १००–१०४) ऋद्धिपुर ताम्रपत्र से ज्ञात होता है की नल शिरोमौर्य भवदत्त वर्मा ने वाकटको की राजधानी नन्दीवर्धन पर अधिकार कर लिया था| भवदत्त के राज्य शक्ति एवं क्षेत्राधिकार के कारण गुप्त वंश के अचली भट्टारीका से विवाह किया तथा गंगा यमुना के संगम पर पारशर गोत्रिय ब्राम्हण को कदम्बगिरी नाम ग्राम दान दिया |

ममचापची (पि) अचली भट्टारिकायाश्च

दम्पत्यस्थासमाकम्नूग्राहात्यर्म(र्थ) 
भागवत: प्रजापति: ते प्रसादसिद्धिक्षेत्रे 
गंड़ायामुनयोसस्वै ये प्रयाग स्थिते:

( जनरल आफ आन्ध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी खण्ड ४ पेज नं. ६५२ ) के अनुसार शरभपुरीयों ने वाकाटको के बजाय नलो के साम्राज्यिक अधिपत्य को स्वीकार किया था | 

सातवी शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिण कोसल (अर्थात मध्य छ.ग.) पर पांडुवंशी नरेशो का आधिपत्य था | नलो ने ६३४ ईसा को पांडु वंशियों को पराजित कर दक्षिण कोसल पर अपना अधिपत्य स्थापित किया | वाकाटको का दमन करने वाले गुप्तो की कन्या से विवाह करने वाले तथा शरभवंशियो एवं पांडुवंशियो को अपना करद बनाने वाले दण्डकारण्य के नलवंश के साथ इतिहासकारों ने न्याय नही किया वही वाकाटकों एवं गुप्तों के महिमा मण्डन से कोई कोताही नहीं बरती |



नलों के पतन के साथ–साथ दण्डकारण्य में गंगो का भी शासन रहा | गंगो के पुर्ववर्ती राजा इंद्रवर्मन जिरजिगी दानपत्र (ओरिसा हिस्टोरिकल रिसर्च जनरल खण्ड || पृ. 251) में अपने आपको ‘त्रिकालिंगाधिपति’ कहा है | हस्तिवर्धन के उत्तराधिकारी इन्द्रवर्मन द्वितीय ने उर्जाम दान पत्र एवं पारलखि भेंडी  दान-पत्र में (इपी.ग्राफिक इंडियन खण्ड १६ पृ. १३४) इन्द्रवर्मन द्वितीयने सकलकलिंगाधिपति कहा है | पूर्वी चालुक्य अम्म प्रथम (९१६ – ९२५) ने मछलीपटनम दान पत्र (इसी.ग्रफीक इंडियन खण्ड २३ पृ. ६९) में दण्डकारण्य क्षेत्र को ‘त्रिकलिंगाटवीयुत्त्क्म’ अर्थात त्रिकलिंग जो आटविक अर्थात वन क्षेत्र युक्त है कहा | 
ममुण्डी नायक के श्रीरंगम ताम्रपत्र (शंक शवत १२८०) इपी ग्राफिक इंडियन खण्ड १३ पृ.९० के अनुसार –

पश्चातपुरास्तादपि य्स्य्देशो 

ख्यातो महाराष्ट्र लिंग संज्ञो 
बवदिदुक पाण्डेय ककान्यकुब्जों 
देशो स्म तत्रापि तिलिंडंग्नामा
अर्थात त्रिकलिंग या तिलिंग नामक क्षेत्र के पश्चिम में महाराष्ट्र, पूर्व में कलिंग, दक्षिण में पाण्डेय देश तथा उत्तर में कान्यकुब्ज देश है अर्थात गंगवंशी काल में ‘त्रिकलिंग’ दण्डकारण्य का घोतक था | तेरहवी शताब्दी में उग्रादित्याचारी द्वारा रचित ग्रन्थ कल्याणकारक में उल्लेखित किया है |

वेगी शत्रिकलिंग देशजनन प्रस्तुत्य सानुत्कट: |

प्रोघद्यद्वृक्षलताविताननिरतै: सिद्धैश्य विद्याधरे: ||

आदित्याचार्य राष्ट्रकूट अमोघवर्ष का समकालीन था इस काल में वेगी जनपद गोदावरी नदी के दक्षिण में तथा त्रिकलिंग जनपद गोदावरी के पूर्वोत्तर क्षेत्र का जनपद था | त्रिकलिंग का उल्लेख नागवंशी शिला लेखो में भी हुआ है | मतस्य पुराण (३१.१) सर्ग में इस क्षेत्र को वानिक अर्थात वनों से घिरा हुआ तथा वामन पुराण में दण्डक वन में साल वृक्षों कि प्रधानता के कारण दण्डकारण्य को साल वन कहा गया है |
दसवी शताब्दी में इर्द्ताम्रपत्र (x) में दण्डभुक्ति का उल्लेख दण्डकारण्य से संदर्भ में है | चक्रकूट की इस भूमि ने मूल बौद्ध धर्म के आंतरिक मतभेदों के चलते महायान से वज्रयान तक की चौदह शाखाओं के विभाजन को भी देखा है |

ग्यारहवीदो  शताब्दी के प्रारम्भ में दण्डकारण्य अंचल में शैव धर्मावलम्बी नागराज सत्ता का अर्विभाव हुआ | इस अर्विभाव ने बौद्ध धर्म के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | 

चौदहवी शताब्दी के प्रारम्भ दशक तक इस दण्डकारण्य से नलवंशी राजाओ एवं उनके सामंतो का शासन रहा |
१९२४ ई. वारंगल के काकतीय वंश के नृपति प्रताप रूद देव अहमदशाह बहमनी हाथों साम्राज्य हार वारंगल से बस्तर के भोपालपटनम नामक स्थान से बस्तर में प्रवेश किया स्थानीय छिन्द्क नागवंश के सामंतों एवं राजाओं से निरंतर संघर्ष कर बस्तर में अपना शासन स्थापित किया | इतिहास बताता है की काकतयी वंश ने बस्तर के दक्षिण पश्चिम से बस्तर मे प्रवेश किया था यह  क्षेत्र वर्तमान बीजापुर जिला का क्षेत्र था | यह दक्षिण पश्चिम क्षेत्र बांस वनों से आच्छादित इलाका था | किवंदतियों के अनुसार सेना बांस के गहन वन प्रांतरो में छिन्द्क नागवंशो के सेना से लंबे समय तक गुरिल्ला युद्ध करती | यह काकतयी सेना बांस के झुरमुटो के नीचे अपनी छावनी लगाती थी बाँस के नीचे निवास को स्थानीय बोली मे बांसतरी कहा जाता था धीर–धीरे काकतीय सैनिको ने इस क्षेत्र के लिए अपने बांसतरी निवास को ‘बाँसतर’ कहा जाने लगा कालांतर यह वाचिक अपभ्रंस रूप ‘बस्तर’ मे परिवर्तित हो गया |
दूसरी किवदंती के अनुसार प्रारम्भिक काकतायी शासक अन्नमदेव से प्रसन्न होकर उनकी कुल देवी दन्तेश्वरी देवी ने पुरे दण्डकारण्य क्षेत्र में अपना दिव्य वस्त्र फैलाकर काकतीय नरेश को एक सुरक्षित राज्य प्रदान किया | वस्त्र कि प्रछाया होने के कारण इस दण्डकारण्य को ‘वंस्त्रर’ कहा गया; कालान्तर वाचिक अपभ्रंस के कारण से ‘बस्तर’ में परिवर्तन हो गया | आज बस्तर छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना के पश्चात धीरे-धीरे राजनीतिक मांग एवं भोगोलिक विशालता के कारण कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर, कोंडागांव, दंतेवाडा, सुकमा तथा जगदलपुर जिलों में विभाजित हो गया |
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